
فراشَـةٌ هامَـتْ بضـوءِ شمعـةٍ | |
فحلّقتْ تُغـازِلُ الضِّرام. | |
قالت لها الا نسـام : | |
( قبلَكِ كم هائمـةٍ .. أودى بِهـا الهُيـامْ ! | |
خُـذي يـدي | |
وابتعـدي | |
لـنْ تجِـدي سـوى الرَّدى في دَورةِ الخِتـامْ ). | |
لـم تَسمـعِ الكـلامْ | |
ظلّـتْ تـدورُ | |
واللَّظـى يَدورُ في جناحِهـا . | |
تحَطّمـتْ | |
ثُـمَّ هَـوَتْ | |
وحَشْــر جَ الحُطـامْ : | |
( أموتُ في النـورِ | |
ولا | |
أعيشُ في الظلامْ )! |